'स्वतंत्रता सेनानी' निकले मोपला के उन्मादी ..
- डॉ सुरेंद्र जैन, संयुक्त महामंत्री, विहिप
आज से ठीक सौ साल पहले केरल में मोपलाओं के द्वारा 20 अगस्त ,1921 को हिंदुओं का भीषण नरसंहार किया गया था। कई दिन तक योजनाबद्ध रुप से चलने वाले इस नरसंहार के दोषियों को 1947 के बाद कैसे स्वतंत्रता सेनानी घोषित किया गया, यह घोर आश्चर्य का विषय है।इनमें से किसी ने अंग्रेजों के विरोध में नारे भी नहीं लगाए।केवल "अल्लाहो अकबर "के नारे लगाते हुएजेहादी उन्माद के साथ हिन्दुओं का नरसंहार करने वाले स्वतंत्रता सेनानी कैसे हो सकते हैं? केंद्र सरकार ने ICHR की एक समिति की सिफारिश पर इनके नामों को स्वतंत्रता सेनानियों की सूची से हटाकर इतिहास के साथ तो न्याय किया ही है, एक षड्यंत्र का भी पर्दाफाश किया है। वे अभिनंदन के पात्र हैं। समाज के सामने यह विषय अवश्य लाना चाहिए कि कैसे मुस्लिम वोट बैंक का निर्माण करने के लिए हिन्दुओं के हत्यारों को महिमामंडित किया गया। भारत विभाजन की विभीषिका से सबक लेने की जगह नेहरू जी ने स्वयं एक और विभाजन के शिलान्यास की भूमिका तैयार की थी। यह स्वाभाविक है कि विभाजन के लिए उत्तरदायी और कांग्रेस की पुरानी साथी मुस्लिम लीग ने इस ऐतिहासिक निर्णय का विरोध करना शुरू कर दिया है।
आज एक अन्य संदर्भ के कारण मोपला नरसंहार के शताब्दी वर्ष में उस विभीषिका की पीड़ा को स्मरण करना बहुत आवश्यक है।15 अगस्त को संपूर्ण भारत स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव मना रहा था। तभी अफगानिस्तान में तालिबान के अत्याचारों से वहां की जनता त्रस्त हो रही थी। चारों तरफ गोलियों की तड़तड़ाहट थी। गैर मुस्लिम तो क्या मुस्लिम समाज का एक वर्ग भी यह अनुभव कर रहा था कि अब तालिबानियों के कारण अफगानिस्तान में कोई सभ्य समाज नहीं रह सकता ।चारों तरफ भगदड़ मच गई थी। महिलाओं पर तरह तरह के प्रतिबंध आ गए थे। यह स्पष्ट हो गया था कभी सभ्यता का केंद्र रहे अफगानिस्तान में अब सभ्यता का नामोनिशान नहीं रहेगा ।वास्तव में तालिबान किसी संगठन का नाम नहीं है यह एक मानसिकता का नाम है जो गैर मुस्लिमों के अस्तित्व को स्वीकार नहीं कर सकती ,उनकी बहन बेटियों को अपनी वासना पूर्ति का माध्यम समझती है और उनके मंदिरों तथा मूर्तियों को तोड़ना अपना कर्तव्य समझती है। भारत ने इस तालिबानी सोच की पीड़ा को कई बार सहा है । केरल में मोपलाओं के द्वारा हिंदुओं का भीषण नरसंहार इसी तालिबानी सोच के कारण हुआ था। एक
अनुमान के अनुसार 25,000 से अधिक हिंदुओं की निर्मम हत्या की गई थी। हजारों महिलाओं का शीलभंग हुआ था ।गर्भवती महिलाओं के पेट फाड़ दिए गए थे। सैकड़ों मंदिर तोड़ दिए गए थे ।जान माल के नुकसान का कोई अनुमान नहीं लगाया जा सकता ।दुर्भाग्य से हिंदुओं के इस भीषण नरसंहार को ढकने के लिए कई प्रकार के नाम दिए गए ।कुछ लोगों ने कहा कि खिलाफत की असफलता से मुस्लिम समाज में उपजा हुआ यह आक्रोश था ।खिलाफत हटाई थी अंग्रेजों ने ।उन्होंने ही इस को पुनः स्थापित नहीं किया ।अगर दोषी थे तो अंग्रेज थे ।फिर हिंदुओं के ऊपर यह अत्याचार क्यों किए थे ? कुछ लोग इसको मोपला विद्रोह भी कहते हैं। उनका कहना है कि वहां जमीदार मुस्लिम मजदूरों का शोषण करते थे ।इसलिए उनके विरोध में वहां के मुस्लिम समाज का यह आक्रोश था ।यदि जमीदार जिम्मेदार थे तो आम हिंदू को क्यों मारा गया ?हजारों दलितों को क्यों मौत के घाट उतार दिया ?सिर्फ इसलिए कि उन्होंने अपना धर्म परिवर्तन करने से मना कर दिया था ? मुस्लिम अत्याचारों को कालीन के नीचे ढकने के ये सब प्रयास मानसिक दिवालियापन के ही प्रतीक नहीं अपितु चंद स्वार्थों के लिए जिहादियों के सामने आत्मसमर्पण के प्रयास है।
मोपला नरसंहार खिलाफत आंदोलन के गर्भ से जन्म लेता है ।इस आंदोलन का प्रारंभ 1919 में होता है जब कुख्यात अली बंधुओं ने खिलाफत कमेटी का गठन किया था ।प्रारंभ में इन्हें मुस्लिम समाज का कोई समर्थन नहीं था। लेकिन 24 नवंबर 1919 एक परिवर्तनकारी तिथि बन गई जब दिल्ली में आयोजित खिलाफत कमेटी के सम्मेलन की अध्यक्षता महात्मा गांधी जी ने की थी ।उस सम्मेलन में उपस्थित मुस्लिम समाज केवल एक नारा लगा रहा था "इस्लाम खतरे में है"। भारत की आजादी या अंग्रेजों का बहिष्कार वहां कोई मुद्दा नहीं था ।वहीं पर महात्मा गांधी जी ने खिलाफत आंदोलन को कांग्रेस का आंदोलन बना दिया। जिन्ना जैसे कट्टर नेता भी खिलाफत आंदोलन का समर्थन नहीं कर रहे थे । उनका कहना था कि खिलाफत पुराने जमाने की बात हो गई है ।वहीं दूसरी ओर तुर्की के कमाल पाशा अंग्रेजों का धन्यवाद कर रहे थे कि उन्होंने खिलाफत की लाश का बोझ मुसलमानों के कंधे से उतार कर फेंक दिया ।भारत में भी कोई बहुत बड़ा समर्थन मुस्लिम समाज से नहीं मिल रहा था। लेकिन इस आंदोलन ने मुस्लिम समाज के एक वर्ग के अंदर
तालिबानी सोच की जेहादी आंधी को भर दिया। प्रारंभ में हिंदू समाज खिलाफत आंदोलन के साथ नहीं था ।इसलिए हिंदुओं को जोड़ने के लिए स्वराज का प्रश्न भी जोड़ दिया गया ।इसके साथ ही स्पष्ट विभाजन दिखाई देने लगा था। अधिकांश हिंदू वक्ता स्वराज की बात करते थे तो मुस्लिम नेता खिलाफत की बात करते थे ।मुस्लिम समाज के नेताओं को लगा कि कांग्रेस के हिंदू नेताओं ने उनके साथ गद्दारी कर दी है और इसी तालिबानी सोच ने उनके मन में हिंदुओं के प्रति नफरत बढ़ा दी। परिणाम स्वरूप देशभर में हिंदुओं पर हमले किए गए लेकिन सबसे बड़ा नरसंहार केरल में हुआ ।
आज मुस्लिम समाज का एक वर्ग मोपला नरसंहार की शताब्दी मना रहा है ।उन वस्त्रों को पहनकर कई लोग इनके प्रदर्शन में शामिल होते हैं जो वस्त्र हत्यारे मोपला पहना करते थे ।आज मोपला नरसंहार का शताब्दी वर्ष कई प्रश्न खड़े कर देता है । जब मोपला में हिंदुओं के नरसंहार का प्रश्न गांधीजी के सामने रखा गया तो गांधी जी ने इस नरसंहार के लिए हिंदुओं को ही जिम्मेदार कहा क्योंकि वे अपनी बहन बेटी की रक्षा नहीं कर सके ।अपने जान माल को नहीं बचा सके ।क्या ऐसे दंगों में उन नेताओं की कोई जिम्मेदारी नहीं बनती जिनके कारण
इस तालिबानी सोच को बढ़ावा मिलता है ?क्या प्रशासन की कोई जिम्मेदारी नहीं बनती थी जो इस तालिबानी सोच को बढ़ने से पहले ही दबा सकते थे? खिलाफत आंदोलन ने तुष्टीकरण की नीति के कारण से जन्म लिया था जिसका परिणाम मोपला नरसंहार हुआ । बाद में भारत के विभाजन के रूप में इसकी परिणति होती है ।क्या तुष्टीकरण की इस राष्ट्रघाती नीति को अब त्याग नहीं देना चाहिए ?तालिबानी सोच भारत में अब भी पनप रही है ।CAAके विरोध में शाहीन बाग रचा गया ।शिव विहार ,सीलमपुर जैसे पचासियों स्थानों पर हिंदुओं के नरसंहार का फिर प्रयास किया गया । अब भी कुछ ऐसे लोग हैं जो तालिबानियों के अमानवीय अत्याचारों का समर्थन कर रहे हैं या उनकी तरफ से आंखें फेर कर तालिबानियों को प्रशस्ति पत्र दे रहे हैं। मोपला नरसंहार के शताब्दी वर्ष में इन सब लोगों को पुनर्विचार करना चाहिए। यह शताब्दी वर्ष आत्म चिंतन का वर्ष है । संपूर्ण मानवता को तालिबानी सोच से कैसे मुक्ति दिलाई जा सके ,ऐसी परिस्थितियां कैसे निर्माण की जाए जिससे मोपला नरसंहार का पुनरावृति न हो सके, इस पर मंथन होना चाहिए। केंद्र सरकार ने हत्यारे मोपलाओं को स्वतंत्रता सेनानियों की सूची से हटाकर एक महत्वपूर्ण पहल की है।इसे आगे ले जाना बहुत महत्वपूर्ण है।