विषय सूची-
- महर्षि वाल्मीकि के राम
- तुलसी के राम
- कबीर के राम
- श्री गुरुनानक देव जी के राम
- महाऋषि अष्टावक्र के राम
- महाकवि कालिदास के राम
- मीरा के राम
- महाकवि केशवदास के राम
- महाप्राण निराला के राम
- राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त के राम
- शायर मो. इकबाल के राम
महर्षि वाल्मीकि के राम
- महर्षि वाल्मीकि ने रामायण में अवतार के उद्देश्य और सिद्धान्त को सुन्दर ढंग से प्रतिपादित किया है। उनका मत है कि परमात्मा तत्कालीन विकृतियों के समाधान के लिये किसी सर्वगुण सम्पन्न ऐसे व्यक्तित्व का सृजन कर देते हैं जो अपने पुरुषार्थ द्वारा समाज की विकृतियों का समाधान कर अपने नेतृत्व में लोगों को इच्छित दिशा में बढ़ने की प्रेरणा देता है। उत्तर काण्ड में वामन भगवान के संबंध में बलि कहते हैं ।
प्रादुर्भावं विकुरुते येनैतन्निधन नयेत् । पुनरेवात्मनात्मानमधिष्ठाय स तिष्ठति ।।
- ये किसी ऐसे को उत्पन्न कर देते हैं, जो उपद्रवी का नाश कर डालता है और यह स्वयं अधिष्ठाता के अधिष्ठाता ही बने रहते हैं। अवतारी पुरुष अपनी श्रेष्ठता प्रकट करने के उद्देश्य से आचरण नहीं करते। उनका उद्देश्य यह होता है कि मनुष्य अपने जीवन में श्रेष्ठता को जागृत करने का मर्म एवं ढंग उनको देखकर सीख सके। इसलिए वे अपने आपको सामान्य मनुष्य की मर्यादा में रखकर ही कार्य करते हैं।
- श्रीराम काल द्वारा अपने उद्देश्य की पूर्ति की सूचना प्राप्त होने पर अपने इस उत्तरदायित्व को स्वीकार करते हुए कहते हैं
त्रयाणामपि लोकानां कार्यार्थं मम सम्भवतः । भद्रं तेऽस्तु गमिष्यामि यत एवाहमागतः ।।
- तीनों लोकों का कार्य सिद्ध करने ही के लिये मेरा यह अवतार है। तुम्हारा मंगल हो। मैं जहां से आया हूं वहां ही चला जाऊंगा। जागृतात्मा व्यक्ति में भगवान की आभा प्रकट होती है। आत्मा परमात्मा का ही अंश है और ईश्वर अपने आपको अनेक रूपों में व्यक्त करते हैं। अपनी वास्तविकता को न समझ पाने के कारण ही हम मूर्छित से रहते हैं। यदि हम अपनी शक्ति को समझ जायं तो कठिनाइयों पर विजय पा सकते हैं। अवतारी पुरुष इस रहस्य को जानते हैं।
- लक्ष्मण लंका युद्ध के अवसर पर श्रीराम को यही स्मरण दिलाते हुए कहते हैं-
दिव्यं च मानुषं च त्वमात्मनश्च पराक्रमम् । इक्ष्वाक्वृषभावेक्ष्य यतस्व द्विषता वधे ।।
- हे इक्ष्वाकुश्रेष्ठ! आप अपने दिव्य और मानवी पराक्रम की ओर देख कर, शत्रुवध का प्रयत्न कीजिये। भगवान के अवतार का उद्देश्य धर्म रक्षा तथा अधर्म का नाश होता है, वे स्वतः तो अपने इस कर्तव्य को समझते ही हैं अन्य पात्र भी उसे जानते हैं।
- राक्षस मारीच रावण से कहता है
रामो विग्रहवान्धर्मः साधु सत्यपराक्रमः । राजा सर्वस्य लोकस्य देवानां मघवानिय ।।
- राम तो धर्म की साक्षात् मूर्ति हैं, वे बड़े साधु और सत्य पराक्रमी हैं। जिस प्रकार इन्द्र देवताओं के नायक हैं, इसी प्रकार राम भी सब लोकों के नायक हैं। सत् पुरुष तो श्रीराम के इस रूप से परिचित हैं ही।
- रामायण के प्रारम्भ में ही महर्षि वाल्मीकि को राम का परिचय देते हुए नारद जी कहते हैं
एष विग्रहवान्धर्म एष वीर्यवतां वरः । एष बदध्याधिको लोके तपसश्च परायणम् ।।
- वे धर्म की मूर्ति ही हैं, तथा तेजस्वी बुद्धिमान एवं लोक कल्याण के लिए सब प्रकार से तप साधना में तत्पर हैं। कर्तव्य परायणता ही धर्म है तथा संयम और सेवा द्वारा ही धर्म लाभ और उसका संरक्षण संभव है उसी प्रसंग में नारद कहते हैं
धर्मज्ञः सत्यसन्धश्च प्रजानां च हिते रतः । यशस्वी ज्ञानसंपन्नः शुचिर्वश्यः समाधिमान् ।।
- वे धर्म के जानने वाले सत्य-प्रतिज्ञ प्रजा की भलाई करने वाले कीर्तिवान, ज्ञानी, पवित्र, मन और इन्द्रियों को वश में करने वाले तथा योगी हैं।
स च सर्वगुणोपेतः कौसल्यानन्दवर्धनः । समुद्र इव गाम्भोर्ये धैर्येण हिमवानिय ।।
- वे सगुणों के भण्डार, मां कौशल्या के आनन्द को बढ़ाने वाले, समुद्र के समान गंभीर तथा हिमालय के समान धैर्यवान एवं दृढ़ हैं। राम में गुण एवं विभूतियां इतनी प्रखर दिखाई देती हैं कि उनकी उपमा मनुष्यों से नहीं दी जा सकती। उनमें अतिमानवीयता, ईश्वर की झलक मिलती है। नारद जी आगे कहते हैं
विष्णुना सदृशो वोर्ये सामवत्प्रियदर्शनः । कालाग्निसदृशः क्रोधे क्षमया पृथिवीसमः ।।
- वे विष्णु के समन पराक्रमी, चन्द्रमा के समान शीतल एवं प्रिय, क्रोधित होने पर मृत्यु के समान, तथा पृथ्वी के समान क्षमा करने वाले हैं। धनुषयज्ञ के प्रकरण में राम की सफलता के बाद राजा जनक ऋषि विश्वामित्रजी से ऐसे ही भाव व्यक्त करते हैं
भगवन् दृष्टवीर्यो मे रामो दशरथात्मजः । अत्यदभुत मचिन्त्यं च न तर्कितामिदं मया ।।
- हे भगवन्! मैंने दशरथ पुत्र राम का अद्भुत, अचिन्त्य तथा तर्क से परे, पराक्रम देखा। महावीर हनुमान भी इन्हें इसी रूप में देखते हैं।
( संदर्भ- वाल्मीकि रामायण, पुस्तक-वाल्मीकि रामायण से प्रगतिशील प्रेरणा, All World Gayatri Pariwar)
तुलसी के राम
मो सम दीन न दीन हित तुम्ह समान रघुबीर।।
अस बिचारि रघुबंस मनि हरहु बिषम भव भीर।।
( हे श्रीरघुवीर ! मेरे समान कोई दीन नहीं है और आपके समान कोई दीनों का हित करनेवाला नहीं है। ऐसा विचार कर हे रघुवंशमणि ! मेरे जन्म-मरणके भयानक दुःखकों हरण कर लीजिये)
कहेउँ ग्यान सिद्धांत बुझाई।
सुनहु भगति मनि कै प्रभुताई॥
राम भगति चिंतामनि सुंदर।
बसइ गरुड़ जाके उर अंतर॥1॥
मैंने ज्ञान का सिद्धांत समझाकर कहा। अब भक्ति रूपी मणि की प्रभुता (महिमा) सुनिए। श्री रामजी की भक्ति सुंदर चिंतामणि है। हे गरुड़जी! यह जिसके हृदय के अंदर बसती है।
राम भगति मनि उर बस जाकें।
दुख लवलेस न सपनेहुँ ताकें॥
चतुर सिरोमनि तेइ जग माहीं।
जे मनि लागि सुजतन कराहीं॥5॥
श्री रामभक्ति रूपी मणि जिसके हृदय में बसती है, उसे स्वप्न में भी लेशमात्र दुःख नहीं होता। जगत में वे ही मनुष्य चतुरों के शिरोमणि हैं जो उस भक्ति रूपी मणि के लिए भली-भाँति यत्न करते हैं॥
सो मनि जदपि प्रगट जग अहई।
राम कृपा बिनु नहिं कोउ लहई॥
सुगम उपाय पाइबे केरे।
नर हतभाग्य देहिं भटभेरे॥
यद्यपि वह मणि जगत् में प्रकट (प्रत्यक्ष) है, पर बिना श्री रामजी की कृपा के उसे कोई पा नहीं सकता। उसके पाने के उपाय भी सुगम ही हैं, पर अभागे मनुष्य उन्हें ठुकरा देते हैं॥
(स्रोत- रामचरित मानस-गोस्वामी तुलसीदास)
कवितावली-बालकाण्ड, प्रभु राम की (बालरूप) की झाँकी
अवधेस के द्वारे सकारें गई सुत गोद कै भूपति लै निकसे।
अवलोकि हौं सोच बिमोचन को ठगि-सी रही, जो न ठगे धिक-से।।
तुलसी मन-रंजन रंजित-अंजन नैन सुखंजन-जातक-से।
सजनी ससि में समसील उभै नवनीस सरोरुह-से बिकसे।।
भावार्थ- (एक सखी दूसरी सखी से कहती है—) मैं सबेरे अयोध्यापति महाराज दशरथ के द्वार पर गयी थी। उसी समय महाराज पुत्र को गोद में लिये बाहर आये। मैं तो उस सकल शोकहारी बालकको देखखर ठगी-सी रह गयी; उसे देखकर जो मोहित न हो, उन्हें धिक्कार है। उस बालक के अञ्जन-रञ्जित मनोहर नेत्र खञ्जन पक्षीके बच्चे के समान थे। हे सखि ! वे ऐसे जान पड़ते थे, मानो चन्द्रमा के भीतर दो समान रूपवाले नवीन नीलकमल खिले हुए हों।।
तनकी दुति स्याम सरोरुह लोचन कंजकी मंजुलताई हरैं।
अति सुंदर सोहत धूरि भरे छबि भूरि अनंगकी दूरि धरैं।।
दमकैं दँतियाँ दुति दामिनि-ज्यौं किलकैं कल बाल-बिनोद करैं।
अवधेस के बालक चारि सदा तुलसी-मन-मंदिर में बिहरैं।।
भावार्थ– राम के शरीर की आभा नील कमल के समान है तथा नेत्र कमलकी शोभा को हरते हैं। धूलि से भरे होनेपर भी वे बड़े सुन्दर जान पड़ते हैं और कामदेव की महती छबि को भी दूर कर देते हैं उनके नन्हें-नन्हें दाँत बिजली की चमकके समान चमकते हैं और वे किलक-किलककर मनोहर बाललीलाएँ करते हैं। अयोध्यापति महाराज दशरथ के वे चारों बालक तुलसी दास के मनमन्दिर में सदैव विहार करें।।
कबहूँ ससि मागत आरि करैं कबहूँ प्रतिबिंबि निहारि डरैं।
कबहूँ करताल बजाइकै नाचत मातु सबै मन मोद भरैं।।
कबहूँ रिसिआइ कहैं हठिकै पुनि लेत सोई जेहि लागि अरैं।
अवधेस के बालक चारि सदा तुलसी-मन-मंदिर में बिहरैं।।
भावार्थ– कभी चन्द्रमा को माँगने की हठ करते हैं, कभी अपनी परछाहीं देखकर डरते हैं, कभी हाथ से ताली बजा-बजा कर नाचते हैं, जिससे सब माताओं के हृदय आनन्द से भर जाते हैं। कभी हठपूर्वक कुछ कहते हैं (माँगते हैं) और जिस वस्तु के लिए अड़ते हैं, उसे लेकर ही मानते हैं। अयोध्यापति महाराज दशरथके वे चारों बालक तुलसीदास के मनमन्दिर में सदैव विहार करें।।
बर दंत की पंगति कुंदकली अधराधर-पल्लव खोलन की।
चपला चमकै घन बीच जगैं छबि मोतिन माल अमोलन की।।
घुँघरारि लटैं लटकैं मुख ऊपर कुंडल लोल कपोलन की।
नेवछावर प्रान करै तुलसी बलि जाऊँ लला इन बोलन की।।
भावार्थ- कुन्दकली के समान उज्जवलवर्ण दन्तावली, अधरपुटों का खोलना और अमूल्य मुक्तमालाओं की छवि ऐसा जान पड़ती है मानो श्याम मेघ के भीतर बिजली चमकती हो। मुख पर घुँघराली अलकें लटक रही हैं। तुलसीदासजी कहते हैं—लल्ला ! मैं कुण्डलों की झलक से सुशोभित तुम्हारे कपोलों और इन अमोल बोलों पर अपने प्राण न्योछावर करता हूँ।
(सन्दर्भ- कवितावली-बालकांड-गोस्वामी तुलसीदास)
कबीर के राम
राम शब्द इतना व्यापक है कि साहित्य में परमात्मा के लिए इसके समकक्ष केवल एक शब्द ही आता है-रमते इति राम: “जो कण- कण में रमते हों उसे राम कहते हैं ।
- संत कबीर लिखते हैं :-
सबमें रमै रमावै जोई, ताकर नाम राम अस होई ।
घाट – घाट राम बसत हैं भाई, बिना ज्ञान नहीं देत दिखाई।
आतम ज्ञान जाहि घट होई, आतम राम को चीन्है सोई।
कस्तूरी कुण्डल बसै , मृग ढूंढ़े वन माहि।
ऐसे घट – घट राम हैं, दुनिया खोजत नाहिं ।
राम शब्द भक्त और भगवान में एकता का बोध कराता है। जीव को प्रत्येक वक्त आभाष होता है कि राम मेरे बाहर एवं भीतर साथ – साथ हैं, केवल उनको पहचाननें की आवश्यकता है। मन इसको सोच कर कितना प्रफुल्लित हो जाता है। इस नाम से सर्वात्मा का अनुभव होता है। स्वामी, सेवक और भक्त में उतनी सामीप्यता नहीं अनुभव होता है। परमात्मा को और भी नामों से संबोधित किया जाता है, लेकिन वे एकांगी जैसा अनुभव होते हैं।
- राम शब्द का अर्थ
“र ” का अर्थ है अग्नि, प्रकाश, तेज, प्रेम, गीत । रम (भ्वा आ रमते) राम (रम कर्त्री घन ण) सुहावना, आनन्दप्रद, हर्षदायक, प्रिय, सुन्दर, मनोहर।
- कबीर राम के सम्बन्ध में भेद करते हैं-
चार राम हैं जगत में, तीन राम व्यवहार ।
चौथ राम सो सार है, ताका करो विचार ॥
एक राम दसरथ घर डोलै, एक राम घट-घट में बोलै ।
एक राम का सकल पसारा, एक राम हैं सबसे न्यारा ॥
सकार राम दसरथ घर डोलें, निराकार घट-घट में बोलै ।
बिंदराम का सकल पसारा, अकः राम हैं सबसे न्यारा ॥
ओउम राम निरंजन रारा, निरालम्ब राम सो न्यारा ।
सगुन राम विष्णु जग आया, दसरथ के पुत्र कहाया ॥
निर्गुण राम निरंजन राया, जिन वह सकल श्रृष्टि उपजाया ।
निगुण सगुन दोउ से न्यारा, कहैं कबीर सो राम हमारा ॥
सगुण राम और निर्गुण रामा, इनके पार सोई मम नामा ।
सोई नाम सुख जीवन दाता, मै सबसों कहता यह बाता ॥
ताहि नाम को चिन्नहु भाई, जासो आवा गमन मिटाई ।
पिंड ब्रह्माण्ड में आतम राम, तासु परें परमातम नाम ॥
- संत कबीर अपने राम के लिए कहते हैं :-
जीव शीव सब प्रगटे, वै ठाकुर सब दास ।
कबीर और जाने नहीं, एक राम नाम की आस॥
सुमिरन करहु राम की, काल गहे हैं केश ।
न जाने कब मारिहैं, क्या घर क्या परदेश ॥
- एक राम नाम के संज्ञा के कारण उत्पन्न भ्रम भेद पर कबीर स्पष्ट कहते हैं-
झगड़ा एक बड़ो राजाराम । जो निरुवारै सो निर्वान ॥
ब्रम्ह बड़ा कि जहाँ से आया । वेद बड़ा कि जिन निरामया ॥
ई मन बड़ा कि जेहि मन मान । राम बड़ा कि रामहिजान ॥
भ्रमि- भ्रमि कबीरे फिरै उदास । तीर्थ बड़ा कि तीर्थ के दास
श्री गुरुनानक देव जी के राम
(गुरुग्रंथ साहिब और राम)
करम खंड की बाणी जोरु ॥ तिथै होरु न कोई होरु ॥
तिथै जोध महाबल सूर ॥ तिन महि रामु रहिआ भरपूर ॥
अर्थ: बख्शिश, रहिमत वाली अवस्था की बनावट बल है, (भाव, जब मनुष्य पर अकाल-पुरख की मेहर की नज़र होती है, तो उसके अंदर ऐसा बल पैदा होता है कि विषय-विकार उस पर अपना प्रभाव नहीं डाल सकते), क्योंकि उस अवस्था में (मनुष्य के अंदर) अकाल-पुरख के बिना और कोई दूसरा बिल्कुल नहीं रहता। उस अवस्था में (जो मनुष्य हैं वह) योद्धे, महांबली व सूरमें हैं, उन के रोम रोम में अकाल-पुरख बस रहा है।
तिथै सीतो सीता महिमा माहि ॥ ता के रूप न कथने जाहि ॥
ना ओहि मरहि न ठागे जाहि ॥ जिन कै रामु वसै मन माहि ॥
अर्थ: उस (बख्शिश) अवस्था में पहुँचे हुए मनुष्य का मन पूरी तरह से अकाल-पुरख की वडिआईमें परोया रहता है, (उनके शरीर ऐसे कंचन सी चमक वाले हो जाते हैं कि) उनके सुंदर रूप का वर्णननहीं किया जा सकता। (उनके मुख पर नूर ही नूर लिशकारे मारता है)। (इस अवस्था में) मन में अकाल-पुरख बसता है, वे आत्मिक मौत नहीं मरतेऔर माया उनको ठग नहीं सकती।
- गुरु नानक जी राम-नाम की महिमा का बखान करते हुए कहते हैं:-
नानक निरमल नादु सबद धुनि सचु रामै नामि समाइदा ॥१७॥५॥१७॥ (SGGS 1038)
(O Nanak, the immaculate sound current of the Naad, and the Music of the Shabad resound; one merges into the True Name of the Lord. )
विदित है कि राम-नाम के पैरोकार गुरु नानक देव जी ने न केवल राम-नाम बल्कि नाद, शब्द, धुन, सच का एक ही अर्थ में प्रयोग कर रहे हैं ।
(सन्दर्भ- श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह-अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल पृष्ठ-8)
- गुरुग्रंथ साहिब में 5500 बार है राम नाम का जिक्र:-
अयोध्या : भगवान राम की महिमा सिख परंपरा में भी बखूबी विवेचित है। सिखों के प्रधान ग्रंथ गुरुग्रंथ साहिब में साढ़े पांच हजार बार भगवान राम के नाम का जिक्र मिलता है।
- दशम गुरु गोविंद सिंह ने तो दशमग्रंथ में रामावतार के नाम से एक परिपूर्ण सर्ग की ही रचना की है।
- सिख परंपरा में भगवान राम से जुड़ी विरासत रामनगरी में ही स्थित ऐतिहासिक गुरुद्वारा ब्रह्मकुंड में पूरी शिद्दत से प्रवाहमान है।
- गुरुद्वारा ब्रह्मकुंड के मुख्यग्रंथी ज्ञानी गुरुजीत सिंह के अनुसार सिख परंपरा में घट-घट व्यापी राम के साथ दशरथनंदन राम की भी प्रतिष्ठा है और यह लगाव मात्र वैचारिक अथवा दार्शनिक होने के साथ अनुवांशिकी के स्तर पर भी है।
- मुख्यग्रंथी की मानें, तो भगवान राम सिखों के डीएनए में शामिल हैं। वे याद दिलाते हैं कि प्रथम सिख गुरु नानकदेव जिस वेदी कुल के दीपक थे, उसकी जड़ें भगवान राम के पुत्र लव से जुड़ती हैं और दशम गुरु गोविंद सिंह जिस सोढ़ी कुल के नरनाहर थे, उसकी जड़ें भगवान राम के दूसरे पुत्र कुश से जुड़ती हैं।
- मुख्यग्रंथी के अनुसार रामजन्मभूमि मुक्ति के संघर्ष से भी सिखों का भगवान राम से जुड़ाव परिपुष्ट है। उनका दावा है कि गुरु गोविंद से लेकर ब्रह्मकुंड गुरुद्वारा के पूर्व महंत गुलाब सिंह, शत्रुजीत सिंह एवं नारायण सिंह जैसी विभूतियों ने रामजन्मभूमि की मुक्ति के लिए बराबर प्रयास किया।
- दर्शन मर्मज्ञ जय सिंह चौहान के अनुसार सिखों में वीरता एवं विनम्रता का समंवित योग उन्हें भगवान राम का बरबस वंशज सिद्ध करता है।
(संदर्भ- दैनिक जागरण Publish Date:Sun, 25 Mar 2018 12:15 AM )
महाऋषि अष्टावक्र के राम
- आठवीं सदी यानि आदि शंकर के आस-पास के समय में रचित ग्रंथ ‘अष्टावक्र गीता’ अद्वैत वेदांत का सर्वोत्कृष्ट ग्रंथ माना जाता है.
- आत्मवादी इस ग्रंथ ने ‘आत्माराम’ शब्द का सुंदर प्रयोग करते हुए कहा- ‘आत्मारामस्य धीरस्य शीतलाच्छतरात्मनः’ — यानी निरंतर आत्मा में रमने वाला आत्माराम ही शीतल और स्वच्छ हृदय का धीरवान संत है.
- अपनी ही अंतरआत्मा में रमण करने वाले चेतन जीव या ब्रह्म के अर्थ में राम शब्द का प्रयोग संभवतः इससे पूर्व के वैदिक ग्रंथों में भी देखने को मिलता है।
(संदर्भ- अष्टावक्र गीता)
महाकवि कालिदास के राम
यज्ञ भूमि में लव और कुश को राम ने बुलाया, क्योंकि उनके रामायण- गान की ख्याति सर्वत्र फैल चुकी थी।
कालिदास ने लिखा है —
तद्गीतश्रवणैकाग्रा संसदश्रुमुखी बभौ।
हिमनिष्यन्दिनी प्रातर्निवर्तितेव वनस्थली।।
वयोवेषविसंवादी रामस्य च तयोस्तदा।
जनता प्रेक्ष्य सादृश्यं नाक्षिकम्पं व्यतिष्ठत।।
अर्थ- लव और कुश ने राम के पूछने पर अपने गुरु वाल्मीकि का नाम बता दिया। राम भाइयों के साथ वाल्मीकि के पास पहुँचे और उन्हें अपना सारा राज्य निवेदन किया। वाल्मीकि ने राम से कहा कि ये तुम्हारे पुत्र हैं। तुम इन्हें और सीता को स्वीकार कर लो। राम ने कहा कि प्रजा को सीता की शुद्धता पर विश्वास नहीं है। यदि सीता शुद्धता का प्रमाण देकर प्रजा को विश्वस्त करे, तो मैं उसे पुत्रों के साथ ग्रहण कर लूँ। सीता के समक्ष वाल्मीकि ने प्रस्ताव रखा। सीता ने कहा — माता पृथिवी, यदि मैं सर्वथा शुद्ध हूँ, तो मुझे अपनी गोद में ले लो। उसी समय पृथिवी फटी और देवी प्रकट होकर सीता को गोद में लेकर चली गई।
(संदर्भ- रघुवंशम् महाकाव्य-महाकवि कालिदास)
मीरा के राम
पायो जी म्हें तो राम रतन धन पायो।
वस्तु अमोलक दी म्हारे सतगुरू, किरपा कर अपनायो॥
जनम-जनम की पूँजी पाई, जग में सभी खोवायो।
खरच न खूटै चोर न लूटै, दिन-दिन बढ़त सवायो॥
सत की नाँव खेवटिया सतगुरू, भवसागर तर आयो।
‘मीरा’ के प्रभु गिरिधर नागर, हरख-हरख जस पायो॥
(संदर्भ-कविता कोश)
महाकवि केशदास के राम
बोलि न बोल्यो बोल, दयो फिर ताहि न दीन्हो।
मारि न मार्यो शत्रु, क्रोध मन बृथा न कीन्हो।
जुरि न मुरे संग्राम, लोक की लीक न लोपी।
दान, सत्य, संमान सुयश दिशि बिदिशा ओपी।
मन लोभ-मोह-मद-काम-वश भये न केशवदास मणि।
सोइ परब्रह्म श्रीराम हैं अवतारी अवतार मणि।।7।।
(संदर्भ-रामचंद्रिका-केशवदास)
महाप्राण “निराला” के राम
कुछ क्षण तक रहकर मौन सहज निज कोमल स्वर,
बोले रघुमणि-“मित्रवर, विजय होगी न समर,
यह नहीं रहा नर-वानर का राक्षस से रण,
उतरीं पा महाशक्ति रावण से आमन्त्रण,
अन्याय जिधर, हैं उधर शक्ति।” कहते छल छल
हो गये नयन, कुछ बूँद पुनः ढलके दृगजल,
रुक गया कण्ठ, चमका लक्ष्मण तेजः प्रचण्ड
धँस गया धरा में कपि गह युगपद, मसक दण्ड
स्थिर जाम्बवान, समझते हुए ज्यों सकल भाव,
व्याकुल सुग्रीव, हुआ उर में ज्यों विषम घाव,
निश्चित सा करते हुए विभीषण कार्यक्रम
मौन में रहा यों स्पन्दित वातावरण विषम।
निज सहज रूप में संयत हो जानकी-प्राण
बोले-“आया न समझ में यह दैवी विधान।
रावण, अधर्मरत भी, अपना, मैं हुआ अपर,
यह रहा, शक्ति का खेल समर, शंकर, शंकर!
करता मैं योजित बार-बार शर-निकर निशित,
हो सकती जिनसे यह संसृति सम्पूर्ण विजित,
जो तेजः पुंज, सृष्टि की रक्षा का विचार,
हैं जिसमें निहित पतन घातक संस्कृति अपार।
शत-शुद्धि-बोध, सूक्ष्मातिसूक्ष्म मन का विवेक,
जिनमें है क्षात्रधर्म का धृत पूर्णाभिषेक,
जो हुए प्रजापतियों से संयम से रक्षित,
वे शर हो गये आज रण में, श्रीहत खण्डित!
देखा हैं महाशक्ति रावण को लिये अंक,
लांछन को ले जैसे शशांक नभ में अशंक,
हत मन्त्रपूत शर सम्वृत करतीं बार-बार,
निष्फल होते लक्ष्य पर क्षिप्र वार पर वार।
विचलित लख कपिदल क्रुद्ध, युद्ध को मैं ज्यों ज्यों,
झक-झक झलकती वह्नि वामा के दृग त्यों-त्यों,
पश्चात्, देखने लगीं मुझे बँध गये हस्त,
फिर खिंचा न धनु, मुक्त ज्यों बँधा मैं, हुआ त्रस्त!”
संदर्भ – सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला” (राम की शक्ति पूजा कविता का अंश)
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त के राम
‘साकेत’ की भूमिका में निर्गुण परब्रह्म सगुण साकार के रूप में अवतरित होता है । आत्मश्रय प्राप्त कवि के लिए जीवन में ही मुक्ति मिल जाने से मृत्यु न तो विभीषिका रह जाती है और न उसे भय या शोक ही दे सकती है। गुप्त जी ने ‘साकेत’ में राम के प्रति अपनी भक्ति भावना प्रकट की है। ‘साकेत’ में मुख्य रूप से उनका प्रयोजन उर्मिला की व्यथा को चित्रित करना था। पर साथ में ही राम की भक्ति भावना के गुण गाने में पीछे नहीं हटे। साकेत में हम जिस रामचरित के दर्शन करते हैं उसमें आधुनिकता की छाप अवश्य है, किन्तु उसकी आत्मा में राम के आधि दैविक रूप की ही झाँकी है और ‘साकेत’ की मूल प्रेरणा है।
जिस युग में राम के व्यक्तित्व को ऐतिहासिक महापुरुष या मर्यादा पुरुषोत्तम तक सीमित मानने का आग्रह चल रहा था गुप्त जी की वैष्णव भक्ति ने आकुल होकर पुकार की थी। ‘साकेत’ पूजा का एक फूल है, जो आस्तिक कवि ने अपने इष्टदेव के चरणों पर चढ़ाया है। राम के चित्रांकन में गुप्त जी ने जीवन के रहस्य को उद्घाटित किया है।
श्रीराम के जन्म पर “मैथिलीशरण गुप्त” कहा है-
किसलिए यह खेल प्रभु ने है किया ।
मनुज बनकर मानवी का पय पिया ॥
भक्त वत्सलता इसी का नाम है।
और वह लोकेश लीला धाम है ।
राम तुम्हारा चरित्र स्वयं ही काव्य है।
कोई कवि बन जाए सहज संभाव्य है॥
(संदर्भ-साकेत में मैथिलीशरण गुप्त)
शायर अल्लामा इकबाल के राम
शायर अल्लामा इकबाल ने भगवान राम को इमाम-ए-हिंद कहा है
है राम के वजूद पे हिंदोस्तां को नाज,
अहल-ए-नजर समझते हैं उस को इमाम-ए-हिंद
(संदर्भ-रेख्ता)